खोले खड़े सागौन
तपती धूप ।
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आया न कोई
गूँगे गीत बसन्त
झूठा था कागा ।
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चाँदनी ओढ़ूँ
बिछाऊँ भी चाँदनी
चाह इतनी ।
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गंध टिकोरा
धूप लीपा आँगन
यादें महकीं ।
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खड़े पर्वत
लेटे कुबड़े ऊँट
हुए धुँधले ।
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सासू जी रात
सौगात चन्द्रमा की
ले गई छीन ।
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बुना घोंसला
जोड़-जोड़ तिनके
ले उड़ी हवा ।
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हवा पगली
बतियाना चाहती
मैं तो बौराई ।
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गरजे मेघा
धरती सहमती
छिपूँ मैं कहाँ ?
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कोलाज़ हुए
नदी, झील, पर्वत
दरख्त़, घास ।
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हुआ उदास
अकेला खड़ा गाछ
हवा न धूप ।
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हिरनौटा रे,
भागता फिरे वक्त
हाथ न आये ।
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फूलों की चौकी
बैठी है लाड़ो धूप
आँखें बिछाये ।
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झील में गिरा
सपना सिरफिरा
बोरला चाँद ।
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खोजती हवा
कहाँ रख भूली रे,
गंध टोकरी ?
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मेघ मल्हार
बरसते बदरा
झूलते पेड़ ।
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आकर लौटा
गूँगा था मधुमास
गली उदास ।
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मेघ कथायें
धरती के पृष्ठों पै
सजी अल्पना ।
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टीले उदास
चिलमन धूल की
उठाये कौन ?
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याद आती है
माँ की साड़ी की गंध
बाबा का कुर्ता ।
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-डॉ० शैल रस्तोगी
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