सिकुड़ा कछुआ रे,
तना अँधेरा।
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सोई है धूप
तलहटी जगाती
थकी लड़की ।
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बादामी धूप
सुरमई बरखा
नाचे रे ताल ।
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खड़ा है चाँद
लेकर लालटेन
सुझाये रास्ता ।
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साँझ डूबती
पश्चिमी पहाड़ी पै
बैठा संन्यासी ।
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फूली सरसों
हरद चढ़ी लाडो
लगी नज़र ।
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उदास हुए
छाज-चक्की-छलनी
कहाँ वे दिन ?
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लिखती धूप
फूल-फूल आखर
भागती नदी ।
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बहरी गली
बड़बोला अँधेरा
गूँगे मकान ।
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सूर्य बिछाता
धूप धोई जाजम
रोज़-रोज़ ही ।
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एक चिड़िया
पंख कटी उदास
मैं ही तो हूँ वो ।
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पीपल गाछ
फड़फड़ाते पात
सुने तो कोई ।
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जोगन शाम
हुआ जोगी सूरज
मन कबीर ।
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नदी कछार
हँसती सोना माटी
धूप के धान ।
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समेटो जाल
ओ रे ओ मछुआरे !
डूबा रे दिन ।
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-डॉ० शैल रस्तोगी
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